Saturday, June 16, 2007
मुझे भी आप माफ़ ही करें नारद जी
नारद अब जर्मनी बन गया है और उसे लोग तानाशाह। कल को मैं भी कुछ लिखूंगा और नारद जी मुझे भी बाहर कर देंगे। मैं नारद के कारण नही हूँ और न ही मुझे नारद के कारण समझा जाय। नारद के लोग जो चाहे मन मानी करें लेकिन मुझे बख्श दें । नारद जी , मुझे भी आप माफ़ ही करें। मैं भी आपके निर्णय से असहमत हूँ। विरोध स्वरूप मेरा चिठ्ठा भी आप अपने यहाँ से बाहर कर दें। मैं यहाँ सेंसर शिप लगवाने नही आया। जो मन करेगा लिखूंगा और नही मन करेगा तो नही लिखूंगा। आख़िर चिठ्ठा किसी की निजी सम्पत्ति होती है और उसमे हस्तक्षेप का अधिकार नारद क्या ब्रम्हा को भी नही दिया जा सकता ।
Saturday, May 26, 2007
ये भाडे के कातिल
किसी का क़त्ल करबा काफी भयावह काम होता है। न सिर्फ भयावह बल्कि क्रूरता की पराकाष्ठा भी । और यह अपराध कई गुना तब बढ जाता है जब किसी निरीह , निरपराध को क़त्ल क़त्ल कर दिया जाय। अबोर्शन ठीक ऐसा ही जघन्य अपराध है। जरा सोचिये ! एक जान को अपने पेट में पलता महसूस करके उसकी होने वाली माँ क्या सोचती होगी ? एक नयी रचना या सृष्टि जो "उसकी" है। और इसका अहसास !! और सबसे बड़ी बात तो ये कि एक शरीर मे दो जिंदों का अहसास। और अगर इन अहसासों को क्रूरता के साथ मसल दिया जाय ? उस नन्ही सी जान को क़त्ल कर दिया जाय जिसने अपने क़त्ल करने वाले को देखा ही नही..... जाना ही नही।
बच्चों को हम प्यार करते हैं , हांथो की सबसे नरम छृअन से सह्लात हैं कि कहीँ... कही उसे रगड़ न लग जाये। दोनो हांथो से उसे हवा मे पकड़कर उछालते हैं और जब वह किलकारी मारते हुए हमारे हांथो में गिरते हैं तो कितना अच्छा लगता है। और उन्ही को पेट मे रहते हुए क़त्ल कर दिया जाता है। कितना क्रूर विचार है मासूमो के क़त्ल का....!! और जरा सोचिये कि कितने क्रूर होंगे वो डॉक्टर जो ये काम करते होंगे। बल्कि उनमे और सुपारी लेकर क़त्ल करने वालों मे कोई अंतर है क्या ? ये लोग भी भाडे के सुपारी किलर हैं जो मासूमो का क़त्ल करते हैं। लेकिन इनसे भी ज्यादा दोषी तो वह माँ बाप हैं जो क़त्ल का इरादा रखते हैं। क्या ऐसे अपराध के लिए उन सबको जो भी इसमे इन्वोल्व हैं उन्हें कड़ी से कड़ी सजा नही मिलनी चाहिऐ?
बच्चों को हम प्यार करते हैं , हांथो की सबसे नरम छृअन से सह्लात हैं कि कहीँ... कही उसे रगड़ न लग जाये। दोनो हांथो से उसे हवा मे पकड़कर उछालते हैं और जब वह किलकारी मारते हुए हमारे हांथो में गिरते हैं तो कितना अच्छा लगता है। और उन्ही को पेट मे रहते हुए क़त्ल कर दिया जाता है। कितना क्रूर विचार है मासूमो के क़त्ल का....!! और जरा सोचिये कि कितने क्रूर होंगे वो डॉक्टर जो ये काम करते होंगे। बल्कि उनमे और सुपारी लेकर क़त्ल करने वालों मे कोई अंतर है क्या ? ये लोग भी भाडे के सुपारी किलर हैं जो मासूमो का क़त्ल करते हैं। लेकिन इनसे भी ज्यादा दोषी तो वह माँ बाप हैं जो क़त्ल का इरादा रखते हैं। क्या ऐसे अपराध के लिए उन सबको जो भी इसमे इन्वोल्व हैं उन्हें कड़ी से कड़ी सजा नही मिलनी चाहिऐ?
Saturday, April 7, 2007
बच्चो को बेईमान बनायें
अभी परसो अखबार मे पढा कि पेप्सी की इंदिरा नुई को भारत सरकार की तरफ से पद्म भूषण पुरस्कार से सम्मानित किया गया । मैं देखने लगा कि शायद इस लिस्ट मे कही पर सुनीता नारायणन का भी नाम हो लेकिन नही था । जब मैं छोटा था तो मैंने सीखा था कि मारने वाले से बचाने वाला ज्यादा बड़ा होता है । लेकिन अब मैं अपने बच्चों को ये सीख नही देता । उनसे कहता हु कि बेटा , मारा करो लोगो को तभी बडे बन पाओगे । अगर बचाने की बात सोचोगे तो कभी भी इंदिरा नूई नही बन सकते । बड़ा पुरस्कार भी नही पा सकते । अगर पाओगे तो सिर्फ गलियाँ और धमकियाँ । मैं सोचता हूँ कि हमें अपने बच्चो को शुरू से ही बेईमान बनने की ट्रेनिंग देनी चाहिऐ। वो बडे से बडे लम्पट हो , किसी पर दया तो कभी भी ना करें। और अगर कभी गलती से कर भी दें तो उसे अखबार मे जरूर निकलवाएँ। दो चार प्रभावशाली लोगों से उनकी मासूम सी दोस्ती तो जरूर ही होनी चाहिऐ । वो अंकल जी अंकल जी वाली । ताकी गाहे बगाहे हम भी अपना काम निकलवा सकें । सेटिंग मे तो उन्हें हमेशा अव्वल रहना होगा तभी वो कुछ बन सकते हैं । लब्बो लुआब यह कि अगर बच्चों को इंदिरा नूई बनाना है तो उन्हें ते साड़ी ट्रेनिंग तो देनी ही पडेगी । तभी तो नाम होगा । तभी तो कोई पद्म पुरस्कार हाथ मे आएगा।
Sunday, March 18, 2007
शब्द बोलते हैं
शब्द बोलते हैं
चीखते हैं
चिल्लाते हैं
रोते हैं
सो जाते हैं
अचानक हड़बड़ाकर
जाग भी तो जाते हैं .
लगते हैं .
उठाते हैं .
पहाड़ पे चढ़ाते हैं .
सपाट हो जाते हैं
काँटे बो जाते हैं
चुभते हैं
काटते हैं
सहलाते हैं
सहम जाते हैं
धीमे से फ़ूस फुसाते हैं
शहद घोलते हैं
शब्द बोलते हैं
Sunday, March 4, 2007
आप बताइए !!
ज़्यादा नहीं बस कुछ ही दिन मे मैं हाज़िर हो रहा हूँ एक नये गुम्मे ( जिसे हिंदी मे पत्थर कहते हैं और मोहल्ले मे गुम्मा ) के साथ , करेंगे अपने मोहल्ले की बात , उत्साह वर्धन से काम नही चलेगा बंधुओं , अब हम बहस भी करेंगे और कॉफी वग़ैरह भी पी ली जाएगी. कभी सोचता हू की बूद्दी जीविओं के ब्लॉग गमन और मनन और चलन के साथ खेमों की ख़बर लूं तो कभी मन करता है कि छोड़ो रहने दो क्या करेंगे हम तो बस यही अपने मुहल्ले मे ही ख़ुश हैं और क्या करेंगे कॉफी शोफ़ी पीकर .. अगर बजार मे आपको कॉफी का कोई नया ब्रांड नज़र आ जाए तो ?
नही तो भई हमारे लिए तो अगम के घर से सामने वाला हैंड पंप ही बहुत बड़ी चीज़ है , शिव ने अपना घर क्यों छोड़ दिया इसमे भी कई राज छिपे हैं . वैसे जंगल जलेबी यां अभी भी बारह पत्थर के एक किनारे क़तार से लगी हुई है और गाहे बगाहे कोई 8 से 10 साल का लड़का उन्हे तोड़ने मे जुटा हुआ दिख जाता है , चलो उनमे तो कोई ज़िंदा है . .
ख़ैर , आप फ़ैसला कीजिए . या आप कुछ सुझाइए कि मुहल्ले की कैसी सी रिपोर्ट जानना चाहेंगे ? या कैसी कॉफी पिएँगे ?
Friday, March 2, 2007
एक दो नहीं पूरे बारह पत्थर
एक मुहल्ले का मिलन स्थल , सभी उमरों की पसंदीदा जगह , चारों तरफ़ से पेड़ों से घिरा और बीच मे एक ख़ूब बड़ा सा मैदान . जिसके अगल बगल होमिओपैथी, एलोपैथी ,तरह तरह के नर्सिंग होम और डॉक्टरी के ढेर सारे खंभे पाए जाते हैं और उनसे निकलने वाला करंट सारे शहर मे मुसलसल दौड़ता रहता है ..दौड़ता रहता है ..हमने सोचा कि क्यों ना इस दौड़ को एक मुकाम दिया जाए जो सीधे उस जगह से शुरू हो जहाँ पर हमने दौड़ना सीखा था . बस यही सोच कर हमने उस मुकाम को नाम दिया बारह पत्थर . यही वो जगह है जहा मुहल्ले का हर बड़ा आदमी जो अब काफ़ी बड़ा हो गया है , कभी बगलों से फटी शर्ट पहन के फ़ुटबॉल खेलने मे कोई शर्म महसूस नही करता था लेकिन पता नही क्यों अब करता है .. ख़ैर ये ब्लॉग नामा इस बात को कुरेदने की क़तई कोशिश नही कर रहा है कि अब वो लोग वहा नज़र क्यों नही आते .. ये तो बस एक याद को संभालने के लिए है जिसे हम सब भूल नही सकते , क्योंकि नगर पालिका की चहारदीवारी से घिरा वो इमली का पेड़ अभी भी है. लेकिन वहाँ जो नही है , वो है वहाँ का मैदान , जिस पर अब मिलेट्री वालों ने क़ब्ज़ा कर लिया है और पूरी तरह से उस मोहल्ले के ही नही बल्कि आस पास के तीन चार ज़िलों के लोग अब उस मैदान से मरहूँ हो गये हैं और इसकी छाया अक्सर पुराने लोगों के चेहरे पर देखी जा सकती है , अब मुहल्ले के बच्चे अपनी अपनी छतों पे खेलते हैं या शायद फिर आर्यकन्या वाले मैदान मे , डंपू तो अपने मैदान मे किसी को खेलने ही नही देता बहुत बदमाश था और अभी भी है .. पता नही उसकी लड़की "शांति" के क्या हाल हैं . जबसे मैदान बंद हुआ तबसे सब लोग मुहल्ले मे ही सिमट गाये हैं . सेंट्रल स्कूल भी कहीं और चला गया है , वही स्कूल जहाँ से गली मे पहली बार गमले चुरा कर लाए गये थे और गली मे एक नये फ़ैशन की शुरुवात हुई थी ... ये बारह पत्थर कभी छूट सकता है क्या ?
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