शब्द बोलते हैं चीखते हैं चिल्लाते हैं रोते हैं सो जाते हैं अचानक हड़बड़ाकर जाग भी तो जाते हैं . लगते हैं . उठाते हैं . पहाड़ पे चढ़ाते हैं . सपाट हो जाते हैं काँटे बो जाते हैं चुभते हैं काटते हैं सहलाते हैं सहम जाते हैं धीमे से फ़ूस फुसाते हैं शहद घोलते हैं शब्द बोलते हैं
बचपन मे ही नही बल्कि जवान होने से पहले तक प्रभात टाकीज़ के दरवाज़ो की झिर्री से चुप चुप के सिनेमा देखना सीखा , फिर किसी तरह से लखनऊ पहुँच गया . मेडिकल मे भर्ती ली और बन गया डॉक्टर . होमियोपैथी की मीठी गोलियो से इतर अब भी मन करता है कि काश प्रभात मे झिर्री हो और मैं हूँ ..लेकिन ऐसा अब मुमकिन नही , ब्लॉग मे ऐसा मुमकिन है तो सोचा यही से ना सिर्फ़ प्रभात की झिर्री से देखूं बल्कि दुनियावी झिर्री को भी महसूस करूँ . यक़ीन मानिए , मैं छपास रोगी नही ..
2 comments:
सचमुच यह शब्द बोल उठे .. ख़ूबसूरत लिखा है
सचमुच, ये शब्द ही तो हैं जो सब खुद को व्यक्त करने का जरिया बन जाते हैं।
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