Sunday, March 18, 2007

शब्द बोलते हैं



शब्द बोलते हैं
चीखते हैं
चिल्लाते हैं
रोते हैं
सो जाते हैं
अचानक हड़बड़ाकर
जाग भी तो जाते हैं .
लगते हैं .
उठाते हैं .
पहाड़ पे चढ़ाते हैं .
सपाट हो जाते हैं
काँटे बो जाते हैं
चुभते हैं
काटते हैं
सहलाते हैं
सहम जाते हैं
धीमे से फ़ूस फुसाते हैं
शहद घोलते हैं
शब्द बोलते हैं

Sunday, March 4, 2007

आप बताइए !!


ज़्यादा नहीं बस कुछ ही दिन मे मैं हाज़िर हो रहा हूँ एक नये गुम्मे ( जिसे हिंदी मे पत्थर कहते हैं और मोहल्ले मे गुम्मा ) के साथ , करेंगे अपने मोहल्ले की बात , उत्साह वर्धन से काम नही चलेगा बंधुओं , अब हम बहस भी करेंगे और कॉफी वग़ैरह भी पी ली जाएगी. कभी सोचता हू की बूद्दी जीविओं के ब्लॉग गमन और मनन और चलन के साथ खेमों की ख़बर लूं तो कभी मन करता है कि छोड़ो रहने दो क्या करेंगे हम तो बस यही अपने मुहल्ले मे ही ख़ुश हैं और क्या करेंगे कॉफी शोफ़ी पीकर .. अगर बजार मे आपको कॉफी का कोई नया ब्रांड नज़र आ जाए तो ?

नही तो भई हमारे लिए तो अगम के घर से सामने वाला हैंड पंप ही बहुत बड़ी चीज़ है , शिव ने अपना घर क्यों छोड़ दिया इसमे भी कई राज छिपे हैं . वैसे जंगल जलेबी यां अभी भी बारह पत्थर के एक किनारे क़तार से लगी हुई है और गाहे बगाहे कोई 8 से 10 साल का लड़का उन्हे तोड़ने मे जुटा हुआ दिख जाता है , चलो उनमे तो कोई ज़िंदा है . .

ख़ैर , आप फ़ैसला कीजिए . या आप कुछ सुझाइए कि मुहल्ले की कैसी सी रिपोर्ट जानना चाहेंगे ? या कैसी कॉफी पिएँगे ?

Friday, March 2, 2007

एक दो नहीं पूरे बारह पत्थर

एक मुहल्ले का मिलन स्थल , सभी उमरों की पसंदीदा जगह , चारों तरफ़ से पेड़ों से घिरा और बीच मे एक ख़ूब बड़ा सा मैदान . जिसके अगल बगल होमिओपैथी, एलोपैथी ,तरह तरह के नर्सिंग होम और डॉक्टरी के ढेर सारे खंभे पाए जाते हैं और उनसे निकलने वाला करंट सारे शहर मे मुसलसल दौड़ता रहता है ..दौड़ता रहता है ..हमने सोचा कि क्यों ना इस दौड़ को एक मुकाम दिया जाए जो सीधे उस जगह से शुरू हो जहाँ पर हमने दौड़ना सीखा था . बस यही सोच कर हमने उस मुकाम को नाम दिया बारह पत्थर . यही वो जगह है जहा मुहल्ले का हर बड़ा आदमी जो अब काफ़ी बड़ा हो गया है , कभी बगलों से फटी शर्ट पहन के फ़ुटबॉल खेलने मे कोई शर्म महसूस नही करता था लेकिन पता नही क्यों अब करता है .. ख़ैर ये ब्लॉग नामा इस बात को कुरेदने की क़तई कोशिश नही कर रहा है कि अब वो लोग वहा नज़र क्यों नही आते .. ये तो बस एक याद को संभालने के लिए है जिसे हम सब भूल नही सकते , क्योंकि नगर पालिका की चहारदीवारी से घिरा वो इमली का पेड़ अभी भी है. लेकिन वहाँ जो नही है , वो है वहाँ का मैदान , जिस पर अब मिलेट्री वालों ने क़ब्ज़ा कर लिया है और पूरी तरह से उस मोहल्ले के ही नही बल्कि आस पास के तीन चार ज़िलों के लोग अब उस मैदान से मरहूँ हो गये हैं और इसकी छाया अक्सर पुराने लोगों के चेहरे पर देखी जा सकती है , अब मुहल्ले के बच्चे अपनी अपनी छतों पे खेलते हैं या शायद फिर आर्यकन्या वाले मैदान मे , डंपू तो अपने मैदान मे किसी को खेलने ही नही देता बहुत बदमाश था और अभी भी है .. पता नही उसकी लड़की "शांति" के क्या हाल हैं . जबसे मैदान बंद हुआ तबसे सब लोग मुहल्ले मे ही सिमट गाये हैं . सेंट्रल स्कूल भी कहीं और चला गया है , वही स्कूल जहाँ से गली मे पहली बार गमले चुरा कर लाए गये थे और गली मे एक नये फ़ैशन की शुरुवात हुई थी ... ये बारह पत्थर कभी छूट सकता है क्या ?